ईद मिलादुन्नबी पर विशेष पैगंबर साहब की नसीहतों ने बदला समाज

हजरत पैगंबर मोहम्मद साहब की विलादत को पूरी दुनिया में जश्न की तरह मनाया जाता है, इसीलिए इसे ईद-ए-मिलादुन्नबी भी कहा जाता है। मोहम्मद साहब वही नबी थे, जिनके आने के पहले इंसानियत अंधी और अखलाक बहरा था, और इंसान का किरदार मैला हो गया था।
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2024-09-14 16:25:54

-मुस्ताअली बोहरा- हजरत पैगंबर मोहम्मद साहब की विलादत को पूरी दुनिया में जश्न की तरह मनाया जाता है, इसीलिए इसे ईद-ए-मिलादुन्नबी भी कहा जाता है। मोहम्मद साहब वही नबी थे, जिनके आने के पहले इंसानियत अंधी और अखलाक बहरा था, और इंसान का किरदार मैला हो गया था। पूरे अरब में हिंसा का बोलबाला था। औरतें और बच्चे महफूज नहीं थे। लोगों के जान-माल की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं थी। इस अंधेरे दौर से दुनिया को बाहर निकालने के लिए अल्लाह ने हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहे वसल्लम को पैगंबर बनाया। मोहम्मद साहब के बताए आदर्शों, नसीहत और सीख के बाद इंसान, इंसान से मोहब्बत करने लग गया था। जुल्मो-सितम की जगह अदल व इंसाफ ने ले ली थी। तलवार के कब्जे पर रखे हाथ अब तालीमे अखलाक के लिए मैदान में निकल आए थे। यह वही ’मोहम्मद’ थे जिन्होंने इंसान को दुनियावी और दीनी तालीम देते हुए हक के रास्ते पर चलने की नसीहत दी। उन्होंने ऐसे आदर्श समाज की स्थापना की जिसमें कई कबीलों और जातियों के लोग बिना किसी भेदभाव के समान अधिकारों के साथ रह सकें। मोहम्मद साहब को अब्द, बशीर, शाहिद, मुबारशीर, नाथिर, सिराज मुनीर, अल मुजम्मिल और अहमद के नाम से भी जाना जाता है। अरब के लोग उन्हें अल-अमीन और अल-सादिक के नाम से भी पुकारते थे। पैगंबर हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहे वसल्लम ने ही इस्लाम धर्म की स्‍थापना की है। आप हजरत सल्ल. इस्लाम के आखिरी नबी हैं, आपके बाद अब कयामत तक कोई नबी नहीं आने वाला। इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक 570 ईसवीं में 12 रबीउल अव्वल मोहम्मद की पैदाईश का दिन। अपने पिता अब्दुल्लाह के इस दुनिया से रूखसत हो जाने के बाद जन्मे इस मासूम बच्चे के बारे में किसने सोचा की थी कि यह शराब-ओ शबाब में खोई, बर्बर और भोग-विलास को अपना धर्म समझने वाली कबीलाई अरब सभ्यता की दशा और दिशा बदलने वाला देवदूत होगा। आपके दादा अब्दुल मुत्तलिब आपकी पैदाइश के दिन ही आपको खाना-ए-काबा ले गए और तवाफ कराकर लाए, और आपका नाम मुहम्मद रखा। आपकी वालिदा ख्वाब में फरिश्ते ने आपका नाम अहमद बताया और इस तरह आपके दो नाम रखे गए। नबी साहब के ये दोनों ही नाम असली है। पैगंबर मोहम्मद साहब का नाम दुनिया में सबसे लोकप्रिय नामों में से एक है। आपके पिता की मौत उनके जन्म से पहले ही हो गई थी, इसके बाद कुछ सालों बाद सिर से मां का साया भी उठ गया। 6 साल की उम्र में अनाथ हो गए, वह अपने चाचा अबू तालिब की सरपरस्ती में रहे। तब उनकी माली हालत भी ठीक नहीं थी। तब वे दमस्क में एक ऊंट की देखभाल करने लगे। 12 साल की उम्र में आप अपने चाचा अबू तालिब के साथ अपने पहले व्यावसायिक सफर पर गए और इसके बाद खुद व्यवसाय पर जाने लगे। मोहम्मद साहब अपने खाली वक्त में वह जबल अल-नूर पर्वत पर ’गार-ए-हिरा’ में जाकर ईबादत में मशगूल हो जाते थे। उनके पास ना तो कोई दौलत थी और न सरमाया। ना सोने-चाँदी, हीरे-जवाहारात के ढेर। फिक्रो-फाका, गरीबी और तंगहाली को देख कर कर्म विरोधी लोग अक्सर कहते थे कि ’ये कैसा नबी है जो रहता है टूटे हुए हुजरे में, बैठता है खजूर की चटाई पर, पहनता है फटी हुई चादर और दावा करता है सारे कायनात के नबी होने का’। लेकिन ये वही नबी थे जिनके वादे को ईमाम हुसैन ने कर्बला में अपनी शहादत देकर पूरा किया और इंसानियत को ताकयामत के लिए बचा लिया। मोहम्मद साहब का पूरा जीवन और उनके किए हर काम में कोई न कोई संदेश जरूर छिपा होता था। मसलन, हजरत खदीजा से मोहम्मद साहब की शादी। 25 साल की आयु में आपने 40 साल की विधवा से शादी की। उनके इस फैसले में विधवा विवाह का सामाजिक संदेश छिपा हुआ था। मक्का के बाहर एक पहाड़ पर सन् 610 में ईश्वरी संदेश या वही के जरिए उन्हें नुबुवत मिली अर्थात पैगंबर बनाए जाने का संदेश मिला। उस वक्त 40 साल के थे। हजरत मोहम्मद साहब पर जो अल्लाह की पवित्र किताब उतारी गई है, वह है कुरआन। अल्लाह ने फरिश्तों के सरदार जिब्राइल अलै. के मार्फत पवित्र संदेश (वही) सुनाया। उस संदेश को ही कुरआन में संजोया गया है। कुरान वह पाक और मुकद्दस किताब है जो आज भी लोगों को भलाई के रास्ते पर चलने का संदेश दे रही है। मोहम्मद साहब की पैदाईश, अरब की सरजमी पर उस समय हुई है जब इंसानियत कराह रही थी। बाप अपनी बच्ची को उसकी हिफाजत के डर से जिंदा जला देते थे। औरत नुमाइश, भोग एवं विलास की वस्तु थी। नाहक तौर पर अरब कबीले एक-दूसरे से जंग करते थे। जहालत के कारण इंसानियत ही खत्म हो गई थी। ऐसे दौर में मोहम्मद साहब ने लोगों को सहीं रास्ता बताया। औरतों को उनका पूरा हक देने, उनके साथ सम्मानजनक बर्ताव करने की हिदायत दी। मोहम्मद साहब के कहना था कि बेटी तो किस्मत वालों के यहां पैदा होती है। इसी तरह आपने बेटे-बेटी की बीच भेदभाव को गलत करार दिया। आपने मां-बाप का मर्तबा बताया और बच्चों को मां-बाप की नाफरमानी न करने की नसीहत दी। न तो ईसा मसीह की तरह मोहम्मद को जन्म से ही अपने नबी होने का अंदाजा था न ही वे मूसा की तरह बेशुमार चमत्कारों के धनी थे। वे जागीर या सल्तनत देकर भी जमीं पर भेजे नहीं गए थे, फिर भी लोगो में मकबूल थे। लोग प्रेम से इन्हें ’सादिक’ यानि सच्चा या ’अमीन’ यानि अमानतदार कह कर बुलाते थे। मोहम्मद साहब के चेहरे पर नूर था। वह लोगों की जरूरतें पूरी करते, अच्छे कामों के लिए लोगों को प्रेरित करते। आप ने कभी दो वक्त का खाना नहीं खाया, एक वक्त खाना खाते और उसमें भी सिर्फ एक ही सब्जी। वह कभी अकेले नहीं खाते बल्कि दूसरे लोगों को न्यौता देकर बुलाते और उनके साथ खाना खाते। आप गरीब और बीमारों की देखभाल किया करते थे। सही मायनों में आप नेकी, प्रेम, उदारता एवं पवित्रता के प्रतीक थे। मोहम्मद साहब के जन्म को भी मुसलमान ईद की तरह मनाते हैं इसलिए इसे ईद मिलाद उन-नबी भी कहा जाता है। ईद का अर्थ होता है उत्सव मनाना और मिलाद का अर्थ होता है जन्म होना। मीलाद उन नबी इस शब्द का मूल मौलिद है जिसका अर्थ अरबी में जन्म है। अरबी भाषा में मौलिद-उन-नबी का मतलब है हजरत मुहम्मद का जन्मदिन है। मौलिद के अलावा मवलीद या मौलूद भी कहा जाता है जिसका मतलब जन्मदिन है। नबी साहब के जन्मदिन पर सीरत और नात पढ़ी जाती है। इस्लाम में बेहद अहम यह दिन इस्लामी कैलेंडर के तीसरे महीने रबी-उल-अव्वल के 12वें दिन मनाया जाता है। हालांकि मोहम्मद साहब का जन्मदिन एक खुशहाल अवसर है लेकिन मिलाद-उन-नबी को कई जगह शोक के दिन के रूप में भी मनाया जाता है। क्योंकि रबी-उल-अव्वल के 12वें दिन ही पैगंबर मोहम्मद साहब खुदा के पास वापस लौट गए थे। यह उत्सव मोहम्मद साहब के जीवन और उनकी शिक्षाओं की भी याद दिलाता है। 1588 में उस्मानिया साम्राज्य में इसे व्यापक तौर पर मनाया गया जिसमें हर खास ओ आम शामिल हुआ था और तब से लेकर अब तक साल दर साल नबी साहब के जन्मदिन का जश्न और ज्यादा भव्य होता जा रहा है। दुनिया भर के अलग-अलग देशों में मुस्लिम धर्मावलम्बी इस त्यौहार को जोश और खरोश के साथ मनाते हैं। ईद मिलाद उन नबी को अलग-अलग भाषाओं में अलग अलग नामों से पुकारा जाता है। अरबी में ईद अल-मौलीद अन-नबी तो उर्दू में ईद मिलाद-उन-नबी कहा जाता है। बांग्लादेश श्रीलंका, मालदीव और दक्षिण भारत की भाषाओं में ईद-ए-मिलादुन नबी, ईजिप्ट की अरबी भाषा एल मूलेद (एन-नबवी) या मूलेद एन-नबी, तुनीश की अरबी भाषा में एल-मूलेद, वोलोफ भाषा में गमोव, अरबी में मौलूद और यौम अन-नबी अरबी में ही मौलीद अन-नबी (ब.व. अल-मवालिद), मलय भाषा में मौलीदुर-रसूल, इंडोनेशियन भाषा में मौलीदुर-नबी, मलेशियन भाषा में मौलूद नबी, स्वाहिली और हौसा भाषाओं में मौलीदी, दारी भाषा या पर्शियन या उर्दू में मौलूद-ए-शरीफ यानि शुभ जन्म, अल्जीरियन भाषा में मौलीद एन-नबोई एशरीफ, तुर्की भाषा में मेवलदूत या मेवलीद-इ शरिफ, बोस्नियन में मेवलूद या मेवलीद, अल्बेनियन में मेवलैदी, पर्शियन में मिलाद-ए पयम्बर-ए अकरम, जावनीस भाषा में मूलूद, संस्कृत या दक्षिण भारती भाषाओं में नबी या महानबी जयंती और अजेरी भाषा में मोवलूद कहा जाता है। मोहम्मद साहब का जीवन मोहम्मद साहब का जन्म सन् 570 में सऊदी अरब में हुआ था। 576 में आपकी मां आमेना का इंतेकाल हो गया। 583 को उनके दादा ने उन्हें व्यापार का अनुभव हासिल करने के लिए सीरिया भेज दिया। 595 में आपकी हजरत खदीजा से शादी हुई। 597 को जैनब, उम्मे कुलसुम और फातेमा नाम की बेटियों का जन्म हुआ। 610 को गार ए हिरा गुफा में देवदूत जिब्राइल से मुलाकात हुई और पैगंबर बनाए जाने का संदेश मिला। इसके बाद आपने इस्लाम के संदेश लोगों तक पहुंचाने शुरू किए। 619 में आपकी पत्नी खदीजा और चाचा अबू तालिब का इंतेकाल हो गया। 620 को मेराज हुई यानि आप आसमानी सफर पर गए। 622 को आपने हिजरत की। सन 622 में वे मक्का से 200 मील दूर मदीना आ गए और मदीना के ही हो गए। मक्का से मदीना के इस सफर को हिजरत कहा जाता है और यहीं से इस्लामी कैलेंडर हिजरी की शुरूआत हुई। 629 को पहली हज यात्रा की। 632 को आखरी हज यात्रा की। 8 जून 632 ईस्वीं, 28 सफर हिजरी सन् 11 को 63 वर्ष की उम्र में हजरत मुहम्मद सल्ल. ने मदीना में दुनिया से पर्दा कर लिया। दुनिया के सामने पेश करें मिसाल आज भी मोहम्मद साहब के जीवन आदर्श को अपनाने, उनके बताए रास्ते पर चलने और मोहम्म्द साहब को मानने के साथ ही मोहम्मद साहब की मानना भी जरूरी है। आज सबसे बडा सवाल यही है कि इस्लाम का जो रूप दुनिया को दिख रहा है क्या उसी इस्लाम की स्थापना मोहम्मद साहब ने की थी। इसका जवाब निश्चित रूप से ना में ही होगा, ऐसे में मोहम्मद साहब के अनुयायियों की जिम्मेदारी और बढ जाती है कि वो अपना किरदार इस तरह से समाज के सामने पेश करें ताकि पूरी दुनिया में ये संदेश जा सकें कि ये वही इस्लाम है जिसको मोहम्मद साहब के नवासे हजरत इमाम हुसैन ने अपनी कुर्बानी देकर बचाया है।

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