2024-09-20 15:52:41
हालांकि केंद्रीय कैबिनेट ने ‘एक देश, एक चुनाव’ की अनुशंसा को स्वीकृति दे दी है, लेकिन उसे लागू करने का रास्ता पेचीदा और पथरीला है। यह अनुशंसा पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली उच्च अधिकार समिति ने की थी, जिसने अपनी विशालकाय रपट मार्च, 2024 में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंपी थी। यदि देश में एक साथ चुनाव की व्यवस्था लागू हो जाए, तो यकीनन शासन, प्रशासन, सुविधा और आर्थिक खर्च के स्तर पर यह एक ठोस नीति साबित हो सकती है। कोविंद समिति ने कुल 62 राजनीतिक दलों से चर्चा की, लेकिन 33 दल एक साथ चुनाव के पक्ष में हैं, जबकि 15 दल पूरी तरह विरोध में हैं। वे ‘इंडिया’ गठबंधन के घटक ही हैं। जाहिर है कि संसद में बिल पर बहस के दौरान भी विभाजन की स्थिति बनी रहेगी। संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान इस आशय का बिल पेश किया जा सकता है। चूंकि एक साथ चुनाव की व्यवस्था लागू करने के लिए 18 संविधान संशोधन करने पड़ेंगे, लिहाजा सरकार को दो-तिहाई बहुमत, यानी लोकसभा में ही 362 सांसद, की दरकार होगी। संसद के दोनों सदनों में सरकार को सामान्य बहुमत ही हासिल है। तो क्या देश में अनेक चुनावों की ही व्यवस्था जारी रहेगी? विपक्ष उसे ही संघीय ढांचा मानता है। हालांकि चुनाव आयोग ने पूरे देश में लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ कराने का दावा किया है, लेकिन यह सवालिया है, क्योंकि चुनाव आयोग एक साथ हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली में विधानसभा चुनाव कराने में असमर्थ रहा है। अब नवंबर में उसे दो चुनाव कराने पड़ेंगे और संभवत: जनवरी में दिल्ली के चुनाव कराने पड़ें। लिहाजा जून, 2029 तक ‘एक साथ चुनाव’ कराने के बंदोबस्त कैसे किए जा सकते हैं? पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी का मानना है कि ‘एक साथ चुनाव’ कराना संभव है, लेकिन व्यावहारिक नहीं है। हमें तीन गुना ईवीएम और तीन गुना वीवीपैट की जरूरत होगी। उसी अनुपात में सुरक्षा बल और चुनाव कर्मी भी चाहिए। आम चुनाव, 2024 में करीब 70 लाख चुनाव कर्मचारी तैनात किए गए थे। हर 5 साल बाद 15 फीसदी अधिक चुनाव कर्मियों की जरूरत होगी। अभी तो ईवीएम के भंडारण तक की व्यवस्था नहीं है। सरकार को 8-10 हजार करोड़ रुपए अतिरिक्त खर्च करने पड़ेंगे। ये तमाम बंदोबस्त 2029 तक संभव नहीं हैं, क्योंकि ईवीएम का उत्पादन ही सीमित है। बहरहाल संविधान के अनुच्छेदों-83, 85, 172 से 174 और 356-में संशोधनों के लिए राज्यों की सहमति अनिवार्य नहीं है। ये अनुच्छेद राष्ट्रपति, केंद्र सरकार और संसद से जुड़े हैं, लेकिन ध्यान रहे कि अब लोकसभा में 234 सांसदों वाला विपक्ष मौजूद है और वह ‘एक साथ चुनाव’ के पक्ष में नहीं है। सिर्फ दो-तिहाई बहुमत से ही ये संशोधन पारित किए जा सकते हैं। सरकार कैसे करेगी? यदि 2029 से ही ‘एक साथ चुनाव’ की व्यवस्था लागू करनी है, तो 22 राज्यों में समय से पहले और 5 राज्यों में कार्यकाल में देरी से चुनाव कराने पड़ेंगे। इसके अलावा, 6 विधानसभाओं-गुजरात, हिमाचल, मेघालय, नागालैंड, त्रिपुरा, कर्नाटक-के कार्यकाल एक साल एक महीना से लेकर एक साल 7 महीने के ही रह जाएंगे। ऐसा कौनसी निर्वाचित विधानसभा चाहेगी? ‘एक देश, एक चुनाव’ कोई नई व्यवस्था नहीं है। आजादी के बाद 1952 से 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ होते रहे। तब तक देश में कांग्रेस की निरंकुश सत्ता थी। 1967 में विपक्ष के गठबंधन बनने लगे, लिहाजा कांग्रेस कई चुनावों में पराजित भी हुई, नतीजतन 1971 का चुनाव ऐसा था कि चुनाव अलग-अलग कराए गए। उसके बाद व्यवस्था ही बदल गई। आज ‘एक साथ चुनाव’ अजूबा लग रहे हैं। उस दौर में देश की आबादी भी कम थी, लिहाजा मतदाता भी कम थे। अब 95 करोड़ से अधिक मतदाता आम चुनाव में शिरकत करते हैं। अब लगता है मानो हर छह माह के बाद कहीं न कहीं चुनाव हो रहे हैं! सरकार इस अवांछित बोझ से छुटकारा पाना चाहती है। चुनाव कहीं भी हों, लेकिन पूरी व्यवस्था ठप पड़ जाती है। बहरहाल, इस मुद्दे पर नई बहस शुरू ही हुई है, देखते हैं कि किस बिंदु पर सहमति बन पाती है। एक देश, एक चुनाव की योजना के खिलाफ कई दल सामने आ रहे हैं। समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने इस योजना को षड्यंत्र करार दिया है। उन्होंने इस योजना को संघीय ढांचे के खिलाफ बताया है। उनका मानना है कि जनहित से जुड़े मसलों से जनता का ध्यान हटाने के लिए भाजपा की एनडीए सरकार यह योजना लेकर आई है। ऐसे में इस योजना के लाभ और हानियों पर व्यापक विमर्श की जरूरत है।